Lekhika Ranchi

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शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की रचनाएंः देवदास--13


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आज दो वर्ष हुए चन्द्रमुखी ने अपने रहने के लिए अशथझूरी गांव मे छोट नदी के तीर पर एक ऊंची जगह मे दो छोटे-छोटे मिट्टी के घर बनाये है। पास ही मे एक खलियान है, वहां पर उसकी एक हृष्टपुष्ट काली गाय बंधी रहती है। दो घरो मे, एक रसोईघर और भंडार है तथा दूसरे मे वह सोती है। सोकर उठने से पहले ही रामवाग्दी की स्त्री सब घर-द्वार झाड़-बुहारकर साफ कर देती है। मकान के चारो ओर सहन बना है, बीच मे एक बेर का पेड़ है और एक ओ एक तुलसी की चौतरिया है। सामने नदी की धार है, उसके आस-पास लोगो ने खजूर और केले आदि के वृक्ष लगा रखे है। चन्द्रमुखी को छोड़, इस घाट का उपयोग और कोई नही करता। वर्षा-काल मे नदी के फनफनाने पर चन्द्रमुखी के मकान के नीचे तक जल आ जाता है। उस समय लोग व्यग्र हो उठते है और कुदाली से मिट्टी खोदकर जगह को ऊंची बनाने के लिए दौड़ आते है। गांव मे ऊंची जाति के लोग नही रहते। किसान अहीर, कहार, कुर्मी, वाग्दी, दो घर कलवार और दो घर चमार रहते है। चन्द्रमुखी ने गांव मे आकर देवदास को सूचना दी; उत्तर मे उन्होने कुछ और रुपये भेज दिये। इन रुपयो मे से चन्द्रमुखी गांव के लोगो को उधार देती है। आपद-विपद मे सभी आकर उससे रुपया उधार ले जाते है। चन्द्रमुखी सूद नही लेती, उसके बदले कन्द-मूल, शाक-भाजी, जिसकी जो इच्छा होती है, दे जाता है। अमल के लिए भी किसी से जोरजबरदस्ती नही करती। जो नही दे सकते, वे नही देते।

चन्द्रमुखी हंसकर कहती-‘अब तुझे कभी न दूंगी।’

वह नम्र भाव से कहता-‘मां, ऐसा आशीर्वाद दो कि इस बार अच्छी फसल हो।’

चन्द्रमुखी आशीर्वाद देती; किन्तु यदि फिर अच्छी फसल न होती तो वे फिर रोते हुए आकर हाथ पसारते और चन्द्रमुखी फिर देती। मन-ही-मन हंसकर वह कहती-वे अच्छी तरह से रहे, मुझे रुपयेपैसे की क्या कमी है।

किन्तु वे कहां है? प्रायः छः महीने हुए, उसे कोई खबर नही मिली। चिट्ठी लिखी, किन्तु कोई जवाब नही मिला। रजिस्ट्री लगायी, वह लौट आयी। चन्द्रमुखी ने एक ग्वाले को अपने घर के पास बसा रखा था। उसके लड़के के विवाह मे साढ़े दस गंडे रुपये से सहायता दी थी; एक जोड़ा कड़ा भी खरीद दिया। उसका सारा परिवार चन्द्रमुखी का आश्रित और आज्ञाकारी था। एक दिन प्रातःकाल चन्द्रमुखी ने भैरव ग्वाला को बुलाकर कहा-‘भैरव, यहां से तालसोनापुर कितनी दूर है, जानते हो?’

भैरव ने सोचकर कहा-‘यहां से कोई दो धाप पर कचहरी है।’

चन्द्रमुखी ने पूछा-‘वहां पर जमीदार रहते है?’

भैरव ने कहा-‘हां, वे भारी जमीदार है। यह गांव भी उन्ही का है। आज तीन वर्ष हुए, उनका स्वर्गवास हो गया। उनके श्राद्ध मे सारी प्रजा ने एक महीने तक पूरी तरकारी खायी थी। अब उनके दो लड़के है; वे लोग बहुत भारी आदमी है-राजा है।’

चन्द्रमुखी ने पूछा-‘भैरव, तुम मुझे वहां तक पहुंचा सकते हो?’

भैरव ने कहा-‘क्यो नही पहुंचा सकता; जिस दिन इच्छा हो, चलो।’

चन्द्रमुखी ने उत्सुक होकर कहा-‘तब चलो न भैरव, मै आज ही चलूंगी।’

भैरव ने विस्मित होकर कहा-‘आज ही?’ फिर चन्द्रमुखी के मुख की ओर देखकर कहा-‘तो तुम जल्दी से रसोई-पानी से निबट लो और मै भी तब तक थोड़ी फरूही बांधकर आता हूं।’

चन्द्रमुखी ने कहा-‘आज मै रसोई करूंगी नही। भैरव तुम फरूही लेकर आओ।’

भैरव घर पर गया और कुछ फरूही चादर मे बांधकर, एक लाठी हाथ मे लेकर तुरन्त लौट आया, कहा-‘तब चलो; पर क्या तुम क्या खाओगी नही?’

चन्द्रमुखी ने कहा-‘नही भैरव, अभी मेरा पूजा-पाठ नही हुआ है, अगर समय पाऊंगी तो वही पर सब करूंगी।’

भैरव आगे-आगे रास्ता दिखलाता हुआ चला। पीछे-पीछे चन्द्रमुखी बड़े कष्ट के साथ पगडंडी के ऊपर चलने लगी। अभ्यास न रहने के कारण दोनो कोमल पांव क्षत-विक्षत हो गये। धूप के कारण सारा मुख लाल हो उठा। खाना-पीना कुछ न होने पर भी चन्द्रमुखी खेत-पर-खेत पार करती हुई चलने लगी।

खेतिहर किसान लोग आश्चर्यित होकर उसके मुख की ओर देखते थे।

चन्द्रमुखी एक लाल पाढ़ की साड़ी पहने हुई थी, हाथ मे दो सोने के कड़े पड़े हुए थे, सिर पर ललाट तक घूंघट था और सारा शरीर एक मोटे बिछौने की चादर से ढंका हुआ था। सूर्यदेव के अस्त होने मे अब और अधिक विलम्ब नही है। उसी समय दोनो गांव मे आकर उपस्थित हुए। चन्द्रमुखी ने थोड़ा हंसकर कहा-‘भैरव, तुम्हारा दो धाप इतनी जल्दी कैसे समाप्त हो गया?’

भैरव ने इस परिहास को न समझकर सरल भाव से कहा-‘इस बार तो चली आयीं। पर क्या तुम्हारी सूखी देह आज ही फिर लौटकर चल सकेगी?’

चन्द्रमुखी ने मन-ही-मन कहा-आज क्या, जान पड़ता है कल भी ऐसे इतना रास्ता नही चल सकूंगी।

प्रकाश ने कहा-‘भैरव, क्या यहां गाड़ी नही मिलेगी?’

भैरव ने कहा-‘मिलेगी क्यो नही, बैलगाड़ी मिलेगी, कहो तो ठीक करके ले आवे?’ गाड़ी ठीक करने का आदेश देकर चन्द्रमुखी ने जमीदार के घर मे प्रवेश किया।

भैरव गाड़ी का प्रबन्ध करने दूसरी ओर चला गया। भीतर ऊपरी खंड मे-दालान मे, बड़ी बहू बैठी थी। एक दासी चन्द्रमुखी को वही लेकर आयी। दोनो ने एक दूसरे को एक बार ध्यानपूर्वक देखा।

चन्द्रमुखी ने नमस्कार किया। बड़ी बहू शरीर पर अधिक अलंकार नही धारण करती, किन्तु आंखो के कोण पर अहंकार झलका करता है। दोनो होठ और दांत पान और मिस्सी से काले पड़ गये है। गाल कुछ ऊपर उठे हुए है और सारा चेहरा भरा-पूरा। केशो को इस प्रकार सजाकर बांधती है कि कपाल जगमगा उठता है। दोनो कानो मे मिलाकर कोई बीस-तीस छोटी-बड़ी बालियां पड़ी है। नाक के नीचे एक बुलाक लटकता है। नाक के एक ओर लौग पहने है। जान पड़ता है, यह सुराख नथ पहनने के लिए बना है।

चन्द्रमुखी ने देखा, बड़ी बहू बहुत मोटी-सोटी है, रंग विशेष श्याम है, आंखे बड़ी-बड़ी है, गोल गठन का मुख है, काले पाढ़ की साड़ी पहने है और एक नारंगी रंग की कुरती पहने है-यह सब देख चन्द्रमुखी के मन मे कुछ घृणा-सी उत्पन्न हुई। बड़ी बहू ने देखा कि चन्द्रमुखी के वयस्क होने पर भी उसका सौन्दर्य कम नही हुआ है। दोनो ही सम्भवतः समवयस्क है, किन्तु बड़ी बहू ने मन-ही-मन इसे स्वीकार नही किया। इस गांव मे पार्वती के अतिरिक्त इतना सौन्दर्य और किसी मे नही देखा।

आश्चर्यित होकर पूछा-‘तुम कौन हो?’

चन्द्रमुखी ने कहा-‘मै आपकी ही एक प्रजा हूं, खजाने की मालगुजारी कुछ बाकी पड़ गयी थी, उसी को देने आयी हूं।’

बड़ी बहू ने मन-ही-मन प्रसन्न होकर कहा-‘तो यहां क्यो आयी, कचहरी मे जाओ।’

चन्द्रमुखी ने मीठी हंसी हंसकर कहा-‘मां, मै बड़ी दुखिया हूं, सब रूपया नही दे सकती। सुना है कि आप बड़ी दयावती है; इसी से आपके पास आयी हूं कि कुछ माफ कर दे।’

इस प्रकार की बात बड़ी बहू ने अपने जीवन मे पहली ही बार सुनी। उनमे दया है मालगुजारी माफ कर सकती हैं, आदि कहने के कारण चन्द्रमुखी तत्काल ही उनकी प्रिय-पात्री हो गयी। बड़ी बहू ने कहा-‘दिन-भर मे कितने ही रुपये मुझे छोड़ने होते है, कितने ही लोग मुझे आकर पकड़ते है; मै नाही नही कर सकती, इसलिए सभी मेेरे ऊपर क्रोध भी करते है। तो तुम्हारा कितना रुपया बाकी पड़ता है?’

‘अधिक नही, कुल दो रुपये; पर मेरे लिए यही दो रुपये पहाड़ा हो रहे है; सारे दिन आज रास्ता चलकर यहां आयी हूं।’

बड़ी बहू ने कहा-‘अहा! तुम दुखिया हो, तुम्हारे ऊपर मुझे दया करनी उचित है। ऐ बिन्दू! इनको बाहर लिये जाओ, दीवानजी से मेरा नाम लेकर कह देना कि दो रुपये माफ कर दे। अच्छा, तुम्हारा घर कहां है?’

चन्द्रमुखी ने कहा-‘आपके ही राज्य मे-अशयझूरी गांव मे। अच्छा मां, क्या छोटे मालिक नही है?’

बड़ी बहू ने कहा-‘अभागी! छोटा मालिक कौन है? दो दिन बाद सब मेरा ही तो होगा।’

चन्द्रमुखी ने उद्विग्न होकर पूछा-‘क्यो? जान पड़ता है, छोटे बाबू पर खूब कर्ज है?’

बड़ी बहू ने थोड़ा हंसकर कहा-‘मेरे यहां कई गांव बन्धक है। अब तक तो सब बिक गया होता।

कलकत्ता मे शराब और वेश्या के पीछे सारा धन लुटाये डाल रहे है, उसका कोई हिसाब नही, कोई अन्त नही।’

चन्द्रमुखी का मुख सूख गया, थोड़ा ठहरकर उसने पूछा-‘हां मां, तो छोटे बाबू इसी से घर भी नही आते?’

बड़ी बहू ने कहा-‘आते क्यो नही है! जब रुपये की जरूरत पड़ती है तो आते है। उधार काढ़ते है, जमीन बन्धक रखते है, फिर चले जाते है। अभी दो महीने हुए आये थे, बाहर हजार रुपये ले गये।

बचने की भी तो उम्मीद नही है, शरीर मे कई-एक बुरे रोग लग गये है! छिः! छिः!’

चन्द्रमुखी सिहर उठी, मलिन मुख से उसने पूछा-‘वे कलकत्ता मे कहा रहते है?’

बड़ी बहू ने सिर ठोक कर, प्रसन्न मुख से कहा-‘बड़ी बुरी दशा है! यह क्या कोई जानता है कि कहां, किस होटल मे रहते है, किस दोस्त के मकान मे पड़े रहते है-यह वही जाने या उनका दुर्भाग्य जाने।’

चन्द्रमुखी सहसा उठ खड़ी हुई, और बोली-‘अब मै जाती हूं।’

बड़ी बहू ने थोड़ा आश्चर्यित होकर कहा-‘जाओगी? अरी ओ बिन्दू...!’

चन्द्रमुखी ने बीच मे ही बाधा देकर कहा-‘ठहरो मां, मै खुद ही कचहरी जाती हूं।’ यह कहकर वह धीरे-धीरे चली गयी। घर के बाहर देखा, भैरव आसरा देख रहा है, और बैलगाड़ी एक किनारे खड़ी है।

उसी रात को चन्द्रमुखी घर लौट आयी। प्रातःकार भैरव को फिर बुलाकर कहा-‘भैरव, मै आज कलकत्ता जाऊंगी। तुम तो साथ जा नही सकोगे, इसलिए तुम्हारे लड़के को साथ ले जाऊंगी। बोलो, क्या कहते हो?’

भैरव-‘जैसी तुम्हारी इच्छा हो। लेकिन कलकत्ता क्यो जाती हो मां, क्या कोई खास काम है?’

चन्द्रमुखी-‘हां भैरव, खास काम है।’

‘भैरव-‘और जाओगी कब?’

चन्द्रमुखी-‘यह नही कह सकती भैरव। अगर हो सका तो जल्दी ही आऊंगी और नही तो देर लगेगी।

और अगर नही आ सकी तो घर-द्वार सब तुम्हारा ही होगा।’

पहले तो भैरव अवाक्‌ हो गया, फिर उसकी दोनो आंखो मे जल भर आया, कहा-‘यह कैसी बात कहती हो मां! तुम्हारे न आने से इस गांव के लोग कैसे रह सकेगे?’

चन्द्रमुखी के नेत्र भी सजल हो उठे, थोड़ी मीठी हंसी हंसकर कहा-‘यह क्यो भैरव, मै तो कुल दो ही वर्ष से आयी हूं, इसके पहले तुम लोग कैसे रहते थे?’

इसका उत्तर मूर्ख भैरव नही दे सकता, किन्तु चन्द्रमुखी हृदय मे सब-कुछ समझती थी। भैरव का लड़का केवला उसके साथ जायेगा। गाड़ी पर आवश्यक चीज-वस्तु लादकर चलने के समय सभी स्त्रीपुरुष देखने आये, देखकर रोने लगे। चन्द्रमुखी भी अपनी आंखो के आंसू नही रोक सकी। नाश हो ऐसे कलकत्ता का, यदि देवदास न होते तो कलकत्ता मे रानी का पद मिलने पर भी चन्द्रमुखी ऐसे प्रेम तृणवत त्यागकर कभी न जा सकते।

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